हे नारी शक्ति स्वरूपा - कविता - सरिता श्रीवास्तव "श्री"

हे नारी शक्ति स्वरूपा हो मत भूलो अपनी ताकत को,
निराला की पत्थर तोड़ती तुम मत भूलो उस पत्थर को।

पाषाण सा सिर तो नहीं उस हवसी अत्याचारी का,
फिर कर कम्पित क्यों कर हैं तोड़ो बहशी खप्पर को।

तुम रानी लक्ष्मी बाई हो जिसने रण धूल चटा दी थी,
सर काट गिराए धरती पर मत भूलो तुम इस मंजर को।

तुम दुर्गा काली महाकाली जिसने दैत्यों का वध किया,
कितने मुण्ड पड़े गर्दन में छोड़ो एक मुण्ड के संसय को।

नौ माह उदर में रखती हो उसी से तुम क्यों हारी हो,
तुम पर ही उंगली उठती है दें दोष तुम्हारे सिंचन को।

दो हाथ तेरे दो पाँव भी है किस तरफ़ से तू निर्बल है,
ममता से तू कोमल है पर जान ले अपने संबल को।

तू जगजननी इस दुनिया की ये विश्व चराचर है तुझसे,
तुझे रोंद रहे हैं अपने ही पहचान संगी या बालक को।

तुम श्रीराम की सीता हो जिसने दैत्य वंश मिटा दिया,
फिर अग्निपरीक्षा तुमको क्यों जानो अंतर पावक को।

पौधा तुमने ही रोपा है पल्लवित तुम्हारा दर्पण है
फिर भूल कहाँ पर हुई है गौर करो "श्री" चिंतन को।

सरिता श्रीवास्तव "श्री" - धौलपुर (राजस्थान)

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