ये जीना भी कैसा जीना - कविता - तेज देवांगन

ये जीना भी कैसा जीना,
दर्द से पसीजा हुआ सीना।
आँखें हर दफ़ा हो रही नम,
ज़िंदगी में चहु ओर ग़म ही ग़म।
मुंख तरसे बतियाने को,
चक्षु तरसे दरस पाने को।
सितम का कारवाँ है छाया,
जैसे घनघोर काला बादल मंडराया।
बहते मेरे बेथकान पसीना,
ये जीना भी कैसा जीना।
दरियान ये आँसू छलकत जाए,
मोहब्बत हमारी किसी को रास न आए,
दुआओ के पंछी अलग डेरा सजाएँ,
क़िस्मत का दरवाजा कोई और खटखटाएँ।
बेरंग थी ज़िंदगी पहले ही,
काहे लगाएँ इसमें कोई हीना,
ये जीना भी कैसा जीना।

तेज देवांगन - महासमुन्द (छत्तीसगढ़)

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