मनुज देह सौभाग्य - दोहा छंद - डॉ. राम कुमार झा "निकुंज"

पंच प्राण धारक जगत, पंचतत्त्व का देह। 
अहर्निशा सुख दुःख सम, परहित जग हो श्रेय।।

लावण्य रूप तनु चारुतम, जन्मा पूत कुलीन।  
कर्म शील विद्या गुणी, मृदुभाषी मदहीन।।

स्वच्छ रखो परिवेश को, लगता सबको कांत।
स्वस्थ रहें काया सदा, मन रहता हैं शांत।।

कण कण तन शोणित भरा, मिला देह अनमोल।
क्षीर नीर वात्सल्य रस, स्नेह सुधा रस घोल।।

श्वेत कृष्ण हो काया पर, लहू लाल सब रंग।
देशभक्ति के रंग में, मत डालो बदरंग।।

बदनसीब बचपन यहाँ, भूख प्यास संत्रस्त।
कहाँ भाग्य काया वसन, आर्त भाव भय ग्रस्त।।

जठरानल में दग्ध नित, वसन व्योम धर देह। 
टिम टिम करती ज़िंदगी, बुझे जले बिन नेह।।

देह वसन सिर छत नहीं, स्वप्न ज्ञान अभिलास।
दर दर की खा ठोकरें, अपमानित उपहास।।

शीतकाल कलिकाल बन, चहुँदिशि है तिमिरान्ध। 
थिथुरन शिथलित गात्र जग, पर नेता पद अन्ध।।

तहस नहस संवेदना, सना रक्त स्वाधीन।
नोंच रहे काया वतन, कामी खल आस्तीन।।

जाति धर्म बिन भाष का, क्षेत्र रंग बिन गेह।
माँ गंगा ममता हृदय, अवगाहन जल देह।।

स्वच्छ रखो परिवेश को, लगता सबको कांत।
स्वस्थ रहें काया सदा, मन रहता हैं शांत।।

विज्ञ सभी इस सत्य से, हो विनाश धन देह।
करे कुटिल बन लालची, परहित में संदेह।।

सदा विनत नित हो सरल ,उदार प्रकृति नित नेह। 
परहित नरपुंगव वही, मानवता रत देह।।

कवि निकुंज नैतिक चरित, आवश्यक आचार। 
मनुज देह सौभाग्य से, परमारथ साकार।।

डॉ. राम कुमार झा "निकुंज" - नई दिल्ली

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