सुन बदरा रे!
हैं विकल जीव सारे,
शिथिल सब थके हारे।
तप्त हलक अधरा रे !
सुन बदरा रे!
सूखे ताल-तलैया,
अब कौन ले बलैया?
है लू का पहरा रे!
सुन बदरा रे!
लोभी मानव रोया,
नाहक में ही खोया।
अंध मूक बहरा रे!
सुन बदरा रे!
ठहर जा नादान हम,
लज्जित हैं आँखें नम।
घाव लगा गहरा रे!
सुन बदरा रे!
सुन बदरा रे!
संजय राजभर "समित" - वाराणसी (उत्तर प्रदेश)