फ़ैशन - लेख - मंजरी "निधि"

दरवाजे पर टंगे लेटर बॉक्स को खोल कर देखा तो मेरी खुशी का ठिकाना ही न रहा। मेरे हाथ में लेक्मे फ़ैशन शो का निमंत्रण पत्र था। मैने जल्दी से ताला खोला और सोफे पर बैठ एकबार निमंत्रण पत्र पढ़ा। समस्या थी तो कपड़ों  से लेकर आभूषण, मेकअप और चप्पल्स की। एक मन कर रहा था कि अभी बाज़ार से आधुनिक फ़ैशन के कपड़े खरीद लाऊ वहीं दूसरा मन भारतीय परिधान पहनने को बोल रहा था। आख़िर मैने सुंदर सी फिरोजी रंग की  शिफॉन साड़ी पहनी साथ फिरोजा के कान के और गले का डाल फ़ैशन शो को चल दी। वहाँ की रंग रोगत, मॉडल्स को देख एक टीस सी मन में उठी कि काश मैंने 2000 में जनम लिया होता तो शायद मैं भी आज इनमें से एक होती।

खैर...
फ़ैशन एक बहुत व्यापक शब्द है जिसने प्राचीन काल से लेकर अभी तक अपने अंदर बहुत कुछ समाया है। फ़ैशन पलक झपकते ही बदल जाता है l भारत का पौराणिक काल से फ़ैशनेबल होने का प्रमाण वेद पुराणों में, अप्सराओं के चित्रों में, देवी देवताओं के मंदिरों में, उनके वस्त्र, आभूषण एवं शृंगार दर्शाता है कि फ़ैशन का फेरा सतयुग से चला आ रहा है।

फिर कुछ ऋषि मुनि एवं उनकी भार्या फूलों के आभूषण एवं वृक्षों के पत्तों के वस्त्र पहनते थे और कुछ साधु भगवे वस्त्र एवं उनकी भार्या बैकलेस चोली। सबके जूड़े बनाने का प्रकार भी विशेष था। ये भी एक तरह की फ़ैशन ही थी।

अब राजा महाराओं की फ़ैशन देखें तो उनके एवं महारानियों के वस्त्र, उनके आभूषण, उनके अस्त्र शस्त्र  उनके राज्य/क्षेत्र के हिसाब से होते थे। उन्हें देखकर समझ आता था कि वे मराठा हैं, राजपूत हैं, यूनानी हैं या फिर मुग़ल।

फिर देश में आज़ादी के बाद धोती, कुर्ता, बंडी, टोपी और छतरी पुरुषों की पोशाक एवं साड़ी, फुग्गे वाले/सफ़ेद रंग के ब्लाउज, दो चोटियाँ, पैरों में सेंडिल का फ़ैशन आया।
फिर समाज, चलचित्र कलाकारों एवं उनके आदर्श व्यक्तियों के रहन सहन से प्रभावित हुआ। फ़ैशन स्त्रियों में ज़्यादा प्रचलित था बजाय पुरुषों के। फिरोज खान, देवानंद, परवीन बॉबी, जीनत अमान जैसे चलचित्र  कलाकारों ने समाज को एक नये प्रकार का फ़ैशन सिखाया।

अंततः ये फैशन आता कहाँ से है? हम किसका अनुसरण  करते हैं? तो हम बॉलीवुड का और बॉलीवुड हॉलीवुड का अनुसरण करता है। पर आज संसार इतना सिमट गया है कि हम सीधा हॉलीवुड का ही अनुसरण करते हैं।

आभूषणों को क्रय करना हो तो त्रिभुवन भीमजी या तनिष्क क्यूंकि अब लेबिल की कीमत फैशन हो गई है।
हम फैशन में आए बदलावों को स्वीकारते गए परन्तु कुछ रूढ़िवादियों ने इसे नहीं स्वीकारा।

"फ़ैशन" ये शब्द सुनते ही फ़ैशन शोज, मॉडल्स और डिज़ाइनर्स सामने आ जाते हैं। फ़ैशन उद्योग ने समाज में अपने पैर पसारना शुरू किया। यहाँ डिज़ाइनर्स अपनी बनाई पौशाकें, आभूषणों के प्रदर्शन, मॉडल्स पर आज़माकर उन्हें रैंप पर चलवाकर समाज के सामने प्रस्तुत करते हैं और बदले में लाखों करोड़ों कमाते हैं। ये अलग बात है कि इन मॉडल्स की पहनीं पौशाकें वास्तविक जीवन में पहनने जैसी नहीं होतीं।

पहले, फ़ैशन शो एवं मॉडलस देखने लोग पेरिस जाते थे। ये शोज अंतर्राष्ट्रीय हुआ करते थे पर आज हमारे देश ने इस फ़ैशन की दुनिया में इतनी प्रगति की कि हमारे यहाँ भी फ़ैशन शो शुरू हो गए। हमारे यहाँ की मॉडल्स को विश्व सुंदरी एवं ब्रम्हांड सुंदरी जैसी पदवियों से सम्मानित किया गया।

फ़ैशन, सिर्फ़ शहरों में ही नहीं अपितु गाँव में भी अपने पैर पसार चुका है। जब गाँव की स्त्रियाँ मेले में या किसी समारोह में सम्मिलित होतीं हैं तब वे स्टाइलिश कपड़ों के साथ ऊपर से नीचे तक चाँदी के गहनों से लदीं रहतीं हैं। मैचिंग चप्पल, मैचिंग चूड़ियाँ, मैचिंग नाख़ून पॉलिश ये सब फ़ैशन का प्रमाण है। कढ़ाई करने वाली स्त्रियाँ अपनी कारीगिरी का सबसे उत्तम वस्त्र पहनतीं हैं जो वनपीस होता है और उसका कोई जोड़ नहीं होता।

फ़ैशन एक कला है, एक शैली है। फ़ैशन ने अपना प्रभाव समाज पर जमाए रखा है। फैशन से एक आत्मविश्वास आता है। मेरा ऐसा मानना है कि नर हो या नारी उनको वही पहनना चाहिए, मेकअप करना चाहिए जो उन पर शोभे। यदी ऐसा नहीं किया तो वो हास्यासपत हो जाता है। "बूढ़ी घोड़ी लाल लगाम" क्यूंकि फ़ैशनेबल वस्त्रों को अच्छे से सम्हालना आना चाहिए।

अब फ़ैशन वापस प्राचीन वस्त्रों एवं आभूषणों को ला रहा है। ऋषि कन्याओं की बेकलेस चोली, बेलबॉटम, तंग पेंट्स, तंग कुर्तो का फ़ैशन वापस आया। जिसे अब हम स्वदेशी कहेंगे।

फ़ैशन पलक झपकते ही बदलता रहता है और हम भी उस व्यवस्था में बदलने की कोशिश करते रहेंगे। इस फ़ैशन का चक्र ऐसा ही चलता रहेगा।

मंजरी "निधि" - बड़ोदा (गुजरात)

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