कल की आस - कविता - मनोज राय

कल की आस लिये बैठे हैं,
अपने पास कुछ ख़ास लिये बैठे हैं,
उम्मीदों का दीप जलाए बैठे हैं।
कल किसने देखा कल कहीं नही
जीवन के कुछ लाभ-हानि लिये बैठे हैं।
कल की आस लिये बैठे हैं।।

हुआ अँधियारा जीवन में
ढूँढ़ें तो ख़ुद का पता नहीं,
मिल जाता जो ख़्वाबों का कल 
ख़ुद की पहचान लिये बैठे हैं।
कल की आस लिये बैठे हैं।।

साँझ से तो प्यार नहीं हैं
सवेरा को गोद लिये बैठे हैं,
दिल में धधकार लिये बैठे हैं।
कल की आस लिये बैठे हैं।।

कल की सोच आज 
हलचल मचा रहा है,
अपनी छोड़ आसमान लिये बैठे हैं।
कल की आस लिये बैठे हैं।।

किसी और ओ जान बना बैठे हैं,
कल की दास्ताँ
आज ही सुनाएँगे,
ऐसा प्रण किए बलिदान लिये बैठे हैं।
कल की आस लिये बैठे हैं।।

मनोज राय - प्रयागराज (उत्तर प्रदेश)

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