आधारहीन थी तू नारी
न कुछ पहचान, तुम्हारी थी,
पढ़-लिख कर तूने बदल दिया
जिन बेड़ियों में, तू जकड़ी थी।
घूँघट के भीतर की सिसकियां
न किसी ने, देखी थी,
भेदभाव का घूँट पिया
हरदम रही, बिरानी सी।
प्रणय पूर्व, पिता की जाति
विवाहोपरांत, पिया की जाति,
क्या तेरा कोई अस्तित्व नहीं
जो बार-बार तू, बदली जाती।
तू घर की संचालिका
तुझसे है, घर की गरिमा,
कई बार अकारण, प्रताड़ित होती
चुपचाप सहती बनी प्रतिमा।
हर क्षेत्र में, आज तूने
बागडोर संभाली है,
घर की चौखट लाँघ कर
बराबर की साझेदारी है।
ऐ नारी!
तू तप-तप कर, कुंदन बनी
ख़ुद राह नहीं तलाशी है,
न पलट कर देखना
तुझ में भविष्य की झाँकी है।
सुनीता मुखर्जी - गाजियाबाद (उत्तर प्रदेश)