इमसाल होली - कविता - कर्मवीर सिरोवा

मज़हब भी खाएँ मिठाई त्यौहारों की एक दूसरे के घर,
हर-नफ़स हम एक हैं, तू मेरे घर मैं तेरे घर जीमने आऊँगा।

मोबाईल ने भाईचारे को डसा हैं, तू ग़म न कर,
हम बजाएँगे दफ़-ओ-चंग, इस होली मैं धमाल गाऊँगा।

मेरी रहगुज़र मिलता हैं गर कोई ग़ैर या रक़ीब,
रंगों से मुख शाद कर बाहें फैलाकर गले लगाऊँगा।

गत होली रोई थी फ़ुर्कतों की बेज़ार बस्ती में,
इस साल न हो ऐसा, मैं मोहब्बत के रंगों से क़ुर्बतें लाऊँगा।

इमसाल होली साक़ी भी होगा, मय भी, दिखेगा हुजूम भी,
खोल देना दरीचा, मैं आसमाँ से चाँदनी बरसाऊँगा।

धोलेंडी पर बैरंग हवा को भी रंगों का परिधान मिलें,
उछलेगा पानी मसर्रत से, मैं पानी का बदन रंगीं कर दूँगा।

जेबें मूठियाँ पिचकारी गुलाल के रंगों से भरकर तय्यार हूँ,
इतना बरसेगा रंग, इरादा हैं इंद्रधनुष को जमीं पर बिछाऊँगा।

बैठा मिल जाएँ राह पर मुँह सूजाएँ  'कर्मवीर' कोई,
इस होली शीरीं-ओ-रंग से उसका चेहरा खिलाऊँगा।

कर्मवीर सिरोवा - झुंझुनू (राजस्थान)

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