बदल गया इंसान - कविता - सुधीर श्रीवास्तव

कितना अजीब लगता है
जब हम कहते हैं कि
इंसान बदल गया,
परंतु हमने कभी अपने बारे में 
सोचा है क्या?
आख़िर हम भी तो इंसान हैं,
औरों पर ऊँगलियाँ उठाते हैं,
तो क्या हम ख़ुद को 
इंसान नहीं मानते?
फिर...
जब हम भी इंसान हैं
तब भी ख़ुद को देखते नहीं 
औरों पर निशाना साधते हैं,
ऐसा करके 
सिर्फ़ अपनी झेंप मिटाते हैं,
अपनी नाकामी छिपाते हैं।
बदले तो सबसे ज्यादा हम ही
ये कहाँ हम बताते हैं?
औरों पर आरोप लगा लगाकर
ख़ुद को सयाना दिखाते हैं,
कौन बदला, कौन नहीं बदला
इसका तो पता नहीं
पर हम ज़रूर बदल गये हैं,
चीख चीख कर सबको
अपनी औकात बताते हैं।

सुधीर श्रीवास्तव - बड़गाँव, गोण्डा (उत्तर प्रदेश)

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