उड़ जाती हो - कविता - कर्मवीर सिरोवा

जब-जब तुम मेरे अन्तर में 
बर्क़ सी पड़ती हो,
क्षुब्ध हृदय में धनक सी लालिमा बढ़ा जाती हो,
घटाकर व्यथा नवप्रभात का संचार कर जाती हो,
बोलकर मधुर बोली तुम गीत मीठे सुना जाती हो,
बार-बार अपने कुसुम कपोलों की चाँदनी दिखाकर,
हर राह पर क़ुमक़ुमे बिखेर मेरी रहबर बन जाती हो,
इन घने भौंहें से सटी क़ुल्ज़ुम को ढकती बावड़ी सी आँखें,
रूह जैसे झाँककर इस सुंदर जलस्त्रोत में नहाने जाती हो,
मूर्तिकार की सर्वश्रेष्ठ कला तुम्हारें लबों पर उतरकर,
हर परेशां मुख पर मुस्कराहट का लिबाज़ पहना जाती हो,
नैनों के तट पर दिखती मानिंद नहर सी नरमाई,
लोगों को ख़बर हैं तुम कितना रुला जाती हो,
हिंदी उर्दू के लफ़्ज़ों की शीरीं मेरे कानों में रखकर,
ग़ज़ल सी बातों से मेरे दिल को चोरी कर जाती हो,
चकनाचूर कर जाती हैं मुझें तुझसें ये दूरी पर,
तुम तस्वीर से उतरकर मेरी नस-नस में अमृत घोल जाती हो,
एक तितली की तरह उड़ती रहती हो तुम सुर्ख़ बगीचे में,
बेलों सी पसरी रगों में पराग भरकर तुम कहाँ उड़ जाती हो,
अब नहीं होता इंतज़ार, अब तो आ जाओ,
जुड़कर मेरे तसब्बुर से तुम क्यों मुझें तन्हा छोड़ जाती हो....

कर्मवीर सिरोवा - झुंझुनू (राजस्थान)

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