फिर एक बार - कविता - डॉ. विजय पंडित

एक बार वहीं से फिर शुरुआत करना चाहता हूँ,
फिर एक बार मैं वही पुराने दिन जीना चाहता हूँ।

दोस्तों के साथ कभी शुरू किया था जो सफ़र,
संघर्ष भरे पुराने दिन, फिर से मैं
जीना चाहता हूँ।

कीमत तो बहुत अदा की दोस्तों 
क़ामयाबी पाने के लिए,
सब नाम शोहरत छोड़,
फिर से अब
गुमनाम होना चाहता हूँ।

लिख सका ना ही इज़हार कर सका जो,
वो अहसासात हर जज़्बात मैं तुमसे 
सुनना चाहता हूँ।
फिर एक बार मैं वही पुराने दिन जीना चाहता हूँ।

ज़िंदगी की इस आपाधापी में जो छूट गए अपने,
दोस्तों के साथ लम्हों को पुराने 
फिर से जीना चाहता हूँ।

छोड़ क़ामयाबी शोहरत मशरूफ़ीयत सभी,
सफ़र ये तुम्हारे साथ ही शुरू करना चाहता हूँ।

नफ़रतों सियासी शह और मात की तकरीरों से,
दूर बहुत दूर मासूम बचपन फिर से जीना चाहता हूँ।

रह गए कुछ जो अनुत्तरित सवाल,
जीवन के
प्रश्नों के वो जवाब एक बार फिर खोजना चाहता हूँ।

देश दुनियाँ में भटक पढ़ पढ़ किताबों को अनेक,
बचपन की तख़्ती बुदके क़लम में खो जाना चाहता हूँ।

भूल आपसी सब खींचतान रिश्तों के चलते शीतयुद्ध,
निश्चल प्रेम, अमन का पैगाम ले दूरियाँ सब मिटाना चाहता हूँ।

एक बार वहीं से फिर शुरुआत करना चाहता हूँ,
फिर से एक बार मैं वही पुराने दिन जीना चाहता हूँ।

दोस्तों के साथ कभी शुरू किया था जो सफ़र,
संघर्ष भरे पुराने दिन फिर से मैं
जीना चाहता हूँ।

डॉ. विजय पंडित - मेरठ (उत्तर प्रदेश)

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