निंदा निंदनीय पाप कर्म,
आलोचना बेहद ज़रूरी।
प्रगति पथ के पथिक की,
उन्नति की सदा है धूरी।
केकई कान की कच्ची रही,
जो राम को वनवास मिला।
सीता हरण का घटनाक्रम,
रामायुद्ध संग्राम मिला।
भर भर कर कान मंथरा ने,
नियति रुख मुख मोड़ दिया।
राजतिलक होना श्री राम का,
वनवासी बनाकर छोड़ दिया।
मर्यादा पुरुषोत्तम राम चंद्र ने,
पिता आदेश किया पालन।
भरत सा भाई अवध नगरी,
चरण पादुका करे संचालन।
निंदा राजा महाराजाओं की,
शासन सत्ता की भी होती।
आलोचक आलोचना करते,
क़िस्मत जिनकी नहीं सोती।
जो खून पसीना बहा बहाकर,
निज भाग्य संवारा करते हैं।
आलोचना मार्गदर्शक बनती,
कर्म से जीवन सुधारा करते हैं।
रमाकांत सोनी - झुंझुनू (राजस्थान)