धूल की होली - कविता - रमेश चंद्र वाजपेयी

बृज धूल की
रोली से,
राधा 
कान्हा संग खेले
होली रे।
देख कान्हा
राधा मनमोहनी को,
अपनी सुध वुध
खो जावे।
वेसुध देख के
कान्हा को,
धूल की
मुटठी खोली रे।
राधा खेले
कान्हा
संग होली रे।
राधा की अमृता सखी,
जब आगे
दूर निकल जावे।
देख अकेली
राधा को
कान्हा सारी बात बतावे।
ऐसी जैसे,
बिन  रंग के
होली रे।
राधा खेले कान्हा
संग होली रे।
बाँध दुपट्टा
राधा अपने
मुख से,
कान्हा के
हाथ न
आवे और
आगे आगे
भागत जावे।
राधा का
दुःख
न देखें,
कान्हा
अपनी ही
हार जतावे।
अनजाने में 
राधा के मुख
धूल का,
गुलाल लगा
कान्हा ने,
मन की
गाँठ जो
खोली रे।
राधा खेले
कान्हा
संग होली रे।

रमेश चंद्र वाजपेयी - करैरा, शिवपुरी (मध्यप्रदेश)

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