मुक़म्मल जहान हैं - नज़्म - कर्मवीर सिरोवा

मेहमाँ तिरे आने से जीवन में आया मिठास हैं,
ये शादी का लड्डू जीवन में लाया उल्लास हैं।

कहते हैं ये लड्डू जो खाए वो पछताए होत हैं,
तुझ से हुई निस्बत तो मालूम हुआ ये बक़वास हैं।

आसमाँ ने भी नुमायाँ तिरा दूधिया अक्स हैं,
बर्क़ सी आँखों से जल रहे बख़्त के चराग़ हैं।

बे-सबब ही सही तिरा मिरा वस्ल मुसलसल हैं,
बीत रही तारीख़ें सजा रही मुक़म्मल जहान हैं।

सब्ज़ रुत आई नज़ारों में, सब तिरी इनायत हैं,
बियाबाँ की फ़ज़ाओं में अंकुरित तिरा नाम हैं।

कच्चा रिश्ता बना पुख़्ता सबब आदमियत हैं,
तिरी आस से गूँजती सदा कहती मुझें जनाब हैं।

मिज़ाज मिरा शायराना हैं, तू वफ़ा का आगाज़ हैं,
तिरी मुस्कराहट सूँ जीस्त-ए-बरक़त-ओ-बहार हैं,

तुझें पाने के लिए उम्रभर से की मैंने इबादत हैं,
कर्मवीर करता हैं अब क़दर तिरी, तू नायाब हैं।

कर्मवीर सिरोवा - झुंझुनू (राजस्थान)

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