बसन्त की सौग़ात - कविता - रमेश कुमार सोनी

शर्माते खड़े आम्र कुँज में 
कोयली की मधुर तान सुन 
बाग-बगीचों की रौनकें जवाँ हुईं
पलाश दहकने को तैयार होने लगे 
पुरवाई ने संदेश दिया कि-
महुआ भी गदराने को मचलने लगे हैं। 
आज बागों की कलियाँ 
उसके आने से सुर्ख हो गई हैं 
ज़माने ने देखा आज ही 
सौंदर्य का सौतिया डाह,
बसंत सबको लुभाने जो आया
प्रकृति भी प्रेम गीत छेड़ने लगी।
भौरें-तितलियों की बारातें सजने लगी
प्रिया जी लाज के मारे 
पल्लू को उँगलियों में घुमाने लगीं,
कभी मन उधर जाता 
कभी इधर आता
भटकनों के इस दौर में 
उसने-उसको चुपके से देखा 
नज़रों की भाषाओं ने  
कुछ लिखा-पढ़ा और
मोहल्ले में हल्ला हो गया। 
डरा-सहमा पतझड़ 
कोने में खड़ा ताक रहा है
बाग का चीर हरने,
सावन की दहक 
अब युवा हो चली है,
व्याह की ऋतु 
घर बदलने को तैयार थी, 
फ़रमान ये सुनाया गया-
पंचायत में आज फिर कोई जोड़ा 
अलग किया जाएगा
कल फिर कोई युवा जोड़ी 
आम की बौरों की सुगंध के बीच 
फँदे में झूल जाएगा!
प्यार हारकर भी जीत जाएगा
दुनिया जीतकर भी हार जाएगी;
इस हार-जीत के बीच 
प्यार सदा अमर है 
दिलों में मुस्काते हुए 
दीवारों में चुनवाने के बाद भी।
बसंत इतना सब देखने के बाद भी
इस दुनिया को सुंदर देखना चाहता है
इसलिए तो हर ऋतु में 
वह ज़िंदा रहता है,
कभी गमलों में तो 
कभी दिलों में।
बसंत कब, किसका हुआ है?
जिसने इसे पाला-पोषा, महकाया,
बसंत वहीं बगर जाता है
तेरे-मेरे और हम सबके लिए
रंगों-सुगंधों को युवा करने। 

रमेश कुमार सोनी - रायपुर (छत्तीसगढ़)

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