ये अजीब ज़िन्दगी - कविता - प्रवीन "पथिक"

मुझे पग-पग पर
मेरी किस्मत को,
ठोकर लगती है।
सह जाता मैं,
उस शूल समझकर।
बढ़ जाता
उसी रास्ते में,
ज़िन्दगी का
कोई भूल समझकर।
अन्तःकरण में
जितनी वेदना, जितनी पीड़ा
चुभती,
लगती मुझे तीर-सी।
उर की वह
सारे कष्ट, सारी व्यथाएं
बह जाती
दृगों से, छलकते नीर-सी!
जहाँ भी कहीं,
एकान्त खोजने की कोशिश करता हूँ।
सोचता हूँ
शायद! कहीं थोड़ी शांति मिल जाए।
ज़िन्दगी में,
दो मधु की बूंदे मिल जाए।
पर!
ऐसा हो नहीं पाता।
धैर्य खो ही जाता;
बेचैन हो जाता,
देख
इस दुखमय स्थिति को,
जगत का,
यही मूल समझकर।
ज़माने की भी
वह करुण-क्रदन औ दुःखभरी बातें।
ग़मों से,
लिपटी वह धुंधली काली रातें,
देखने व सुनने को मिलती है।
मन फिर,
एक असीम गहराइयों में डूबने लगता है।
हृदय में,
एक अजीब हलचल सा करने लगता है।
सारा-संसार,
तब वेदना-सा लगने लगता है।
इन सबसे मैं दूर जाना चाहता हूँ।
बहुत दूर; बहुत दूर औ बहुत दूर।
पर!
ज्योंहि कदम बढ़ाता
खींचकर ला देती मुझे
ये अजीब ज़िन्दगी!
तब,
इस पर मुझे थोड़ा संदेह होता है।
इन सबको भूलकर मैं
जब उन प्यारे लम्हों को याद करता हूँ।
महसूस होता है; सोचता हूँ।
भले अधिक ही खोया है ज़िन्दगी में
पर, कुछ तो पाया है।
ग़म भी दी है इसने मुझे सभी,
पर, गले भी तो लगाया है।
तब,
थोड़ी राहत की अनुभूति होती है 
संदेह मिटता जाता है,
मेरे मन का।
इस संसार को
सुख-दुःख से अभिभूत;
कोई 
सुगंधयुक्त फूल समझकर।
फिर,
बढ़ जाता मैं
उसी रास्ते में
ज़िन्दगी का यही
और यही मूल समझकर।।

प्रवीन "पथिक" - बलिया (उत्तर प्रदेश)

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