बसंत - कविता - अनिल बेधड़क

सूखे पत्ते सूखी डाली,
फल विहीन कैसी हरियाली।
कलियाँ सूख गईं डालो पर,
आँसू फूलों के गालों पर।
फिर भी जश्न मनाता माली,
खुशियाँ भी लगती हैं खाली।
यह यारों कैसा बसंत है,
कुछ बोलो कैसा बसंत है?

भाई बना भाई का दुश्मन,
यह मजहब में कैसी अनवन।
लूटें सुबह शाम होती हैं,
पकड़े सरे आम होती है।
हैं बसंत खुशियों से खाली,
अब बसंत की रीति निराली।
यह यारों कैसा बसंत है,
कुछ बोलो कैसा बसंत है?

अनिल बेधड़क - शिकोहाबाद (उत्तर प्रदेश)

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