तुम्हारी हिन्दी - कविता - विनय "विनम्र"

मत करो मुझे व्याकरण बद्ध,
मुझको रहने दो अलंकरण मुक्त,
मैं सरस, सरल हिन्दी हूँ
मुझको जी जाओ
गरल नहीं हूँ अमृत हूँ,
विश्वास सहित बस पी जाओ।

मैं नालंदा का ग्यान मूल
ऊं नाद का स्वर हूँ,
तिरस्कार क्या कर पाओगे?
संवाद सहित घर-घर हूँ,
मुझको त्यागो फिर तुम देखो,
निःशब्द मौन हो जाओगे,
पाषाण काल के मानव सा
निराकार-मय खो जाओगे।

सदियों तक तुम थे ग़ुलाम
तब भी थी साकार तुम्हीं संग,
लाख प्रबल भाषा आक्षेपण
नहीं मुझे कर पाये तंग,
अब तो तुम आज़ाद हो चुके,
मुझे मिश्रण से आज़ाद करो,
मैं माध्यम हूँ आपसी संवाद का
तुम स्वयं को बस आबाद करो,
मेरी चिंता मुझ पर छोडो
मैं जैसी हूँ स्वीकार करो।।

विनय "विनम्र" - चन्दौली (उत्तर प्रदेश)

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