हिन्दी मेरी पहचान - कविता - पुनेश समदर्शी

आज हिन्दी है तो अपनी बात रख पाता हूँ,
अंग्रेजी नहीं आती तो कहाँ पछताता हूँ।

अपनी कहूँ तुम्हारी सुनूँ ये हुनर हिन्दी है,
सच कहूँ तो मेरी पहचान मेरी हिन्दी है।

बिना हिन्दी ये समदर्शी मंचों पर ना हुंकारता,
कविता, गीत, ग़ज़ल कैसे अंतर्मन झंकारता।

आज हिन्दी से ही अपने हौसले बुलंद करता हूँ,
प्रतिद्वंद्वी, आलोचकों के मंसूबे मंद करता हूँ।

आज हिन्दी से ही तुलसी, सूर, कबीरा पढ़ पाया,
आज हिन्दी से ही मुंशी, भारतेंदु, मीरा पढ़ पाया।

मैं नागार्जुन, रामधारी, बिहारी को कहाँ पढ़ पाता,
जायसी, भूषण के प्रेम, शौर्य को ना पढ़ पाता।

आज हिन्दी से ही राष्ट्र इतिहास पढ़ पाया हूँ,
आज हिन्दी से ही ये कविता गढ़ पाया हूँ।

पुनेश समदर्शी - मारहरा, एटा (उत्तर प्रदेश)

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