माँ - कविता - राम प्रसाद आर्य

माँ ने मुझे जना, 
माँ ने मुझको पाला। 
माँ ने रखा मुँह में मेरे,
भोजन का प्रथम निवाला।।

माँ ने आँचल में ढककर, 
है मुझको दूध पिलाया।
जब-जब नींद न आये, 
लोरी गा-गा मुझे सुलाया।। 

तबियत तनिक बिगड़ती,
तत्क्षण डॉक्टर को दिखलाया। 
चोट लगे, कंटक पग चुभता, 
बस, ओ माँ! मैं चिल्लाया।। 

उंगली पकड़-पकड़ माँ ने, 
मुझको है चलना सिखाया। 
सच्चे गुरू की भांति पढ़ाकर, 
मुझको सन्मार्ग दिखाया।। 

खुद भूखी रह कर भी माँ ने, 
नित पहले मुझे खिलाया। 
फटे-पुराने खुद पहने, 
मुझे नया-नया पहनाया।।

माँ से बड़ा न रिश्ता कोई, 
नहीं माँ से बड़ा सहारा। 
माँ से ही हम-तुम हैं औ, 
जग में अस्तित्व हमारा।। 

इच्छाभर सेवा तो माँ की , 
मैं भी नहीं कर पाया।
पर भाग्यवान रहा मैं 
माँ का पर्याप्त प्यार है पाया।। 

जब तक माँ थी, घर की चिन्ता, 
ने नहीं कभी सताया। 
अब माँ नहीं तो सबकुछ होते, 
घर रीता-रीता पाया।। 

माँ सा सृजक, पालक, रक्षक, 
शिक्षक कोइ और न दूजा। 
माँ से बड़ा न ईश्वर औ, 
माँ-सेवा से बड़ी कोइ पूजा।।

राम प्रसाद आर्य "रमेश" - जनपद, चम्पावत (उत्तराखण्ड)

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