खूबसूरती उस बेवक़्त फूलो की तरह है,
जो कभी कली हुआ करती थी।
मधुवन के बागों में मिला करती थी,
भोरे जिस पर मंडराते,
तितलियाँ गाया करती थी।
सूरज की किरणों को देख,
यूँ इठलाया करती थी।
ओश की बूंदों से सिकुड़,
मुचमुच शर्माया करती थी।
बारिश की बूंदों से नहा,
मर्म हवाओं से, सजाया करती थी।
पुस की ठंड रातों में,
सर्द तान सुनाया करती थी।
वक़्त का क़हर, टूटा बन बौछार,
ठंड से निजात, अब पतझड़ की बार।
गर्म हवाएँ , ओश की तकरार,
टूट - टूट पंखुड़ियां, गिरते अब हजार।
जो इठलाती थी, कल खुद पर,
ओ पड़ी, धरा हो निहाल।
भौरें अब फूलो से कतराने लगे,
तितलियाँ अब दूर और दूर जाने लगे।
वक्त का पहियाँ घूमता हर बार,
कभी पतझड़ तो कभी बहार।
मत इठला ए मानुष तन,
आज उसकी तो कल तेरी बार।
तेज देवांगन - महासमुन्द (छत्तीसगढ़)