हर बार मुझे ही,
नतमस्तक होना पड़ता तेरे समक्ष।
तुम नहीं झुकती,
क्योंकि हिमालय नहीं झुकता।
हर बार मेरी ही,
आँखें अश्रुपात करती।
तुम नहीं रोती,
क्योंकि पत्थर नहीं पिघलता।
हर बार मुझे ही,
भीष्म प्रतिज्ञा तोड़नी पड़ती।
दृढ़ता तुम नहीं छोड़ती,
क्योंकि
सूर्य अपने शाश्वत नियमों को नहीं छोड़ता।
आख़िर क्यों?
सर्वविदित है
एक दिन हिमालय भी,
भास्कर के प्रचंड तेज से पिघल उठता।
पत्थर भी ज्वालामुखियों के,
भीषणता को सहन करने में अक्षम है।
चीड़ का तरू भी,
तीव्र पवन की गति सहन नहीं कर पाता।
अहम् है मुझमें भी!
महात्मा बुद्ध औ मनु बन सकता हूँ।
परंतु इसका प्रभाव
तुम्हे भी यशोधरा औ श्रद्धा बना के ही छोड़ेगा।
देखा है मैंने
जंगल के खूँखार शेरों को,
मनुज-सा जीवन व्यतीत करते।
विशाल हिमखंडों को,
नदी-नालों में व्यर्थ बहते।
सुन लो!
मैं ही वो "पथिक" हूँ,
जो तुम्हारा पाथेय बन सकता है।
मुझमें ही वो आलोक है,
जो तुम्हारे जीवन के गहन तम को
मिटा सकता है।
हमें तो हर सुख-दुःख को,
एक साथ सहना है।
इसीलिए तो कहता हूँ।
व्याकुल सीने से लग जाओ,
क्योंकि हमें साथ ही रहना है।।
प्रवीन "पथिक" - बलिया (उत्तर प्रदेश)