हे! अन्नदाता - कविता - आर सी यादव

अरूणोदय के साथ ही
उदित होती है ये कहानी 
जो चलती रहती है निरन्तर
सूर्यास्त के बाद भी।

घनघोर घटाओं में 
क्रूर क्रंदन करती चपला
तुम अडिग-अविचल-अविराम चलाते हल
जग की क्षुधा शांति के निमित्त
परहित धर्म निभाते 
सजाते संवारते सुगम राह जग की।

हे! अन्नदाता
भानु की तीक्ष्ण किरण
जब पड़ती तुम्हारे अधनंग बदन पर
मोतियों सी चमक उठती
माथे से लुढ़कती पसीने की बूंदें
लू से घिरी दोपहरी में
कर्मरत हो करते मड़ाई
देते सीख स्वकर्म की।

माघ पूस की निस्तब्ध निशा में
जब सो जाता है जगत
अलाव की ओट में
त्याग निद्रा विलास
सींचते जल से फसल
जागते बन प्रहरी धरा की।

हे! अन्नदाता
जीवन मरण के बीच के फ़ासले
व्यतीत करते हो अभावों में
कर समझौता नियति से
दुःख दर्द समेटे हृदय में
दैहिक आडंबरों से परे
लड़ते-जूझते हुए दैनिक ज़रूरतो से
रहते सर्वजन परिजन संग प्रसन्नचित।

हे! अन्नदाता
प्रकृति की अनुग्रह पर आश्रित
तुम्हारा संपूर्ण जीवन 
ऊँची-ऊँची इमारतों में कैद
धनाढ्य-अभिजात-सामंत-समृद्ध लोग
क्या बन सकेंगे तुम्हारा सहचर?
तुम्हारे श्रम से उपजी रोटी
करती जग को संतृप्त
ना कोई चाह, ना कोई अभिलाषा।
अवर्णनीय-अलौकिक है तुम्हारी गाथा।
क्योंकि तुम्हीं हो
जग के अन्नदाता।

आर सी यादव - जौनपुर (उत्तर प्रदेश)

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