हर तरफ़ ग़म ही ग़म रुसवाई ही रुसवाई है।
तेरी यादें हैं, मैं हूं और मेरी तन्हाई है।।
चांद नहीं आता है नज़र मुझे इस चांदनी में।
चांदनी रात बनी आज फिर हरजाई है।।
मैं अलग हूं, ज़माने से जो ये कहते हैं, झूठे हैं।
यहां तो हर इन्सां बना ख़ुद में तमाशाई है।।
जल उठा दिल मेरा उससे धुआं भी ना हुआ।
ये कैसी आग है और किसने ये लगाई है।।
पारो शैवलिनी - चितरंजन (पश्चिम बंगाल)