अब नहीं रुकना हैं - कविता - दिलीप कुमार शॉ

बहुत हो गया सबसे रिश्ते निभाना,
अब खुद से रिश्ता निभाना हैं। 
बातें तो सबकी सुननी हैं
पर अपनी बातों को नहीं भूलने देना हैं।
अब नहीं रुकना हैं चलना हैं चलना हैं।

बहुत हो गया चींटियों को देखना 
अब खुद भी उनकी तरह संघर्ष करना है। 
ख़ामोश तो रहना है सबके सामने 
लेकिन अपनी पैरो को लड़खड़ाने नहीं देना है।
अब नहीं रुकना है चलना है चलना है। 

बहुत हो गया हताश में जीना
अब खुद के उमीदों को जगाना है। 
मुर्ख तो बनना है सबके सामने 
लेकिन अपनी जिज्ञासा को मरने नहीं देना है।
अब रुकना नहीं है चलना है चलना है।

बहुत हो गया दूसरो के क़ाबिलियत को देखना 
अब खुद के क़ाबिलियत को पहचाना है। 
सरल तो रहना है सबके साथ 
लेकिन अपने आत्मसम्मान को झुकने नहीं देना है।
अब रुकना नहीं है चलना है चलना है। 

दिलीप कुमार शॉ - हावड़ा, कोलकात्ता (पश्चिम बंगाल)

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