वक़्त का पहरा - कविता - कवि कुमार प्रिंस रस्तोगी

घड़ी चल रही है पल पल वहीं 
दिन ढल रहा है पग-पग वहीं,
न जाने ये कैसी पहेली जगी 
अजब ज़िंदगी की पहेली जगी,
न जाने कोई कल की गुज़रा कहीं
न ठहरा कोई पल जो गुज़रा वहीं,
अजब कशमकश की ये घड़ियां बड़ी,
नहीं ज़िंदगी का है पहरा कोई,
न सोचा न समझा न जाना कोई 
कि गुज़रा है कल कैसा न माना कोई,
दिन ढल रहा है पल पल वहीं 
निशां में है डूबी निशाएं वहीं,
जो ठहरा यहीं है वो जाना यहीं,
यही ज़िंदगी को है कहता कवि,
अजब ज़िंदगी का न पहरा कोई,
लगी धुन है कैसी न चेहरा कोई,
ग़ज़ब ज़िंदगी का न पहरा कोई,
जो सोचा था समझा था जाना वही,
घड़ी चल रही थी पल-पल वहीं।

कवि कुमार प्रिंस रस्तोगी - सहआदतगंज, लखनऊ (उत्तर प्रदेश)

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