हम नादानियों के चलते
पिता के रहत
उनके जज़्बात नहीं समझते,
जब तक समझते हैं
तब तक उन्हें खो चुके होते हैं।
उनके रहते हम खुद को
स्वच्छंद पाते हैं,
उनके जाने के बाद
जब जिम्मेदारियों का बोझ
फ़ैसले लेने की दुविधा में
जब उलझकर परेशान होते हैं,
तब पिता बहुत याद आते हैं।
पिता के रहते जो मुश्किलें
आसान सी दिखती हैं
उनके जाने के बाद
वही पहाड़ नज़र आते हैं।
पिता को खोने का अहसास
तब समझ में आता है
जब वास्तव में हम
पिता बनकर
खुद परेशान होकर भी
लाचार नज़र आते हैं।
जीते जी उनके जज़्बात से
खिलवाड़ करते रहे,
आज जब उनकी जगह
पर हम आये हैं,
तब पिता की अहमियत का
अहसास करते
बहुत पछताते हैं।
सुधीर श्रीवास्तव - बड़गाँव, गोण्डा (उत्तर प्रदेश)