पीड़ा - कविता - अवनीत कौर

अंतर्मन से निकली आह
यह पीड़ा है
उदास मन की बेइंतहा
झूठा शोर
बेमानी ख़ामोशी
इस पीड़ा की किसे है परवाह।


जब रूद्र शब्द मन में करे क्रीड़ा
ह्रदय छलनी करे यह पीड़ा
आँसू रुप ले बहे यह पीड़ा
शांत हो तब रुदन आत्मक्रीडा।


वेदनाओ ने ख्वाबों को झिंझोड़ा
कुछ तोड़ा, उलाहना से मरोड़ा
ज़ख्म होगे इतने गहरे
दिखे पीड़ा, चेहरे पर ठहरें।


शांत मन पीड़ा का मरहम
जैसे पीड़ा हो पड़ी मखमल
अंतर्मन की पीड़ा है बेरहम
ख़तम न हो, न मिटे कोहराम।


अवनीत कौर "दीपाली सोढ़ी" - गुवाहाटी (असम)


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