मिहिर! अथ कथा सुनाओ (भाग १४) - कविता - डॉ. ममता बनर्जी "मंजरी"

(१४)
संथाली विद्रोह, प्रांत में क्यों था जारी?
क्या दामिन-ई-कोह, कचहरी थी सरकारी?
न्याय हेतु संथाल, किया करते तय दूरी।
बतलाओ जगपाल! कि कैसी थी मजबूरी?


बोल पड़े जगपाल, सविस्तृत हाल कहानी।
शासक गण जिसकाल, किया करते मनमानी।
गरज उठे संथाल, परगने में दल-बल सह।
मन में ले उत्ताल, जमींदारों पर अहरह।।


उन्हें मूल अधिकार, न मिलना था इक कारण।
अंग्रेजी सरकार, न करती दुःख निवारण।
न्यायालय था दूर, महाजन द्वार खड़े थे।
होकर के मजबूर, शरण संथाल पड़े थे।।


जुट हुए संथाल, महाजन गए लताड़े।
क्षेत्र हुई बेहाल, सतत बन गए अखाड़े।
सिद्धू औ कान्हू, बने नेता विद्रोही।
भाई भैरव चाँद, मचा दी खूब तबाही।।


हुए वीर बलिदान, बोलकर रवि अकुलाए।
मौन हुए दिनमान, दिए चल शीश झुकाए।
ठहरो हे मंदार! वायदा कर के जाओ।
ममता करे गुहार, मिहिर! अथ कथा सुनाओ।।


डॉ. ममता बनर्जी "मंजरी" - गिरिडीह (झारखण्ड)


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