लफ़्ज़-ए-ज़िन्दगी - कविता - तेज देवांगन

कहानी तो हमने भी बहुत लिखे,
पर सारे फसाने निकले।
कुछ मनगढ़ंत, तो कुछ दीवाने निकले। 
अफसोस ये नहीं, गाँव छोड़ शहर आए।
पर शहर भी, बेगाने निकले।
खुद को ढूंढा दर-ब-दर, पाया तन्हा हर सफ़र।
मन्ज़िलों के भी, हमारे लाख बहाने निकले।
चलने का दौर सिमटता गया,
रुकने का दौर यू मिटता गया।
कोशिशें अब थकान पे थी,
मंज़िले आसमान में थी।
भटकने का सिलसिला,
सिराना बन गया,
जो ढूंढते दे दर-ब-दर,
ओ बहाना बन गया।
ज़िंदगी की तबस्सुम, ख़तम होने वाली है।
मन्ज़िले दूर और दूर जाने वाली है।
ख़ुदा अगर शराफ़त रहा,
मिला देना मेरे दर मन्ज़िल से..
भटकता आत्मा हूँ।
राहें तेरी खड़ा हूँ, मन्ज़िलों से अब दूर पड़ा हूँ।

तेज देवांगन - महासमुन्द (छत्तीसगढ़)

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