कब तक - कविता - सन्तोष ताकर "खाखी"

यूँ चेहरा छुपाकर रहे हमसे
तो कब तक जीयेंगे,
यूँही शर्माते रहे तो
बात कब करेंगे।

बीत गए कुछ पल यूँही,
हमारे ना मिलने से भी,
कब तक ये पल ठहर जाएंगे।

कुछ तुम कहो, कुछ कहे हम,
हम ही हम मुस्कुराए तो
कब तक जी भर साथ निभाएंगे।

याद आते बहुत हों,
ये हम ही हम ज़िक्र करे तो
कब तक ऐसे मिल पाएंगे।

ये प्यास कह लो,
या कह लो जज़्बात,
आप ना समझोगे तो
कब तक यूँही जलते रहेंगे।

मेरा हँसना मेरा रोना
ये रूह के एहसास,
सब एक तरफा रहा तो
कब तक निभा पाएंगे।

चार विचार मित्रता पर
यार जो करते हैं तुमसे,
गर तुमने ही धरा नहीं,
कब तक विश्वास दिलाएंगे।

इंतज़ार बेपनाह मोहब्बत का,
दिल में छुपाए आग,
गर हम मर गए तो
कब तक ये समझ पाएंगे।

सन्तोष ताकर "खाखी" - जयपुर (राजस्थान)

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