कब है ज़माने को गवारा - कविता - रमेश चंद्र वाजपेयी

तेरा बाकपन
तेरा मुस्कराना
तुम्हें देखकर
मेरा उलझ जाना
कब है ज़माने को गंवारा।
अब तुम्ही
बताओ सजनी
कहीं महल प्यार का
ढह न जाये
आपने जो मुद्दत से संवारा।
जब जब 
प्यार को
आपके दिल में
हमने जताना चाहा।
मायूस 
बन कर रह गये
सुन तेरी
वे मतलब की
आहा।
जिस राह पर
चलें है अपन
मंजिल क्या
कभी पास आयेगी।
सोच रहे है।
एक घरौंदा
बसा कर
गृहस्थी की
आस जगायेगी।
सारी रात
जाग कर
करता हूँ में
सजनी तेरी 
यादों को खुलासा।
लगता है
डर कि
वेवफा के पानी में
कहीं घुल न जाये
मोहब्बत का बताशा।
बकते है लोग
हँसते है लोग
राधा ने श्याम का
पलट दिया है पांसा।
हुआ दीवाना
प्यार के पागल पन में
जो मानुष
भला था
अच्छा खासा।
प्यार का
न छलके जाम
मोहब्बत एक बार होती
न होती है दुबारा।
तेरा बांकपन 
तेरा मुस्कराना
तुझमें उलझ जाना
कब है
ज़माने को गंवारा।

रमेश चंद्र वाजपेयी - करैरा, शिवपुरी (मध्य प्रदेश)

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