काट लाये खेतों से सपनों को हम - कविता - सतीश श्रीवास्तव

जीवन बीत रहा उलझा सा
उलझन हुई न कम,
काट लाये खेतों से
सपनों को हम।
यही खेत तो जीवन रेखा
खेतों में ही जीना,
नहीं किसी को पता खेत में
कितना बहा पसीना।
कोई यंत्र नहीं है जिससे
नापें अपना श्रम,
काट लाये खेतों से
सपनों को हम।
कई सालों से मेरी जेबें
हैं कोरी की कोरी,
अनगिन सपने पाले बैठे
हैं धनिया और होरी।
रोज शाम को मरा
सबेरे आ जाती है दम,
काट लाये खेतों से
सपनों को हम।
सब कहते हैं मुझको दाता
कोई कहे विधाता,
लेकिन पेट की आंतों को क्यों
कुछ भी नहीं सुहाता।
मृगतृष्णा ही रही जिंदगी
आंखें रहीं हैं नम,
काट लाये खेतों से
सपनों को हम।
मन घबराता धीरज मिलता
देख खेत में गेहूं,
देती बाली बाली ढांढस
मैं हूँ मैं हूँ मैं हूँ।
कभी कभी सच भी सचमुच में
लगने लगा वहम,
काट लाये खेतों से
सपनों को हम।
सपने फिर से जीवित हो गये
सालें बीतीं मरे हुए,
गुड्डा गुड़िया मुनियां के भी
सपने सारे हरे हुए।
मंडी की नीलामी में फिर
टूट गया सब भ्रम,
काट लाये खेतों से
सपनों को हम।

सतीश श्रीवास्तव - करैरा, शिवपुरी (मध्यप्रदेश)

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