सुर्ख़ हाथों से तेरा नाम लिखता हूं,
रस्मे-उल्फ़त का पैग़ाम लिखता हूं!
वो लिखती है तन्हा रात का मंज़र,
मैं सुरमई सी कोई शाम लिखता हूं!
जो कह सका न हाले-दिल अपना,
किस्से वो ख़त में तमाम लिखता हूं!
मेरी रुसवाई काश समझ लेती वह,
मोहब्बत न होती नाकाम लिखता हूं!
क़ातिलों की बस्ती में है बेबस दिल,
ये इश्क़ नहीं, है कत्लेआम लिखता हूं!
मोहम्मद मुमताज़ हसन - रिकाबगंज, टिकारी, गया (बिहार)