क़ातिलों की बस्ती में बेबस दिल - ग़ज़ल - मोहम्मद मुमताज़ हसन

सुर्ख़ हाथों से तेरा नाम लिखता हूं,
रस्मे-उल्फ़त का पैग़ाम लिखता हूं!

वो लिखती है तन्हा रात का मंज़र,
मैं सुरमई सी कोई शाम लिखता हूं!

जो कह सका न  हाले-दिल अपना,
किस्से वो ख़त में तमाम लिखता हूं!

मेरी रुसवाई काश समझ लेती  वह,
मोहब्बत न होती नाकाम लिखता हूं!

क़ातिलों की बस्ती में है बेबस दिल,
ये इश्क़ नहीं, है कत्लेआम लिखता हूं!

मोहम्मद मुमताज़ हसन - रिकाबगंज, टिकारी, गया (बिहार)

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