चाहत-ए-इश्क़ - ग़ज़ल - विकाश बैनीवाल

नायाबी मुल्क़ निसार दूँ मैं तेरी चाह में, 
नज़रें इनायत डाल ज़िंदगी की राह में। 

फ़ितरत-ओ-सादग़ी में फ़ना हूँ तेरी, 
लाज़ परख़ी मैंने कई दफ़ा निग़ाह में। 

बेनज़ीर लब-ओ-लहज़े का सलीक़ा, 
ग़ज़लों की हुज़ूम लगी तेरी पनाह में। 

शेर-ओ-शायरी का काफ़िला खड़ा, 
अर्ज़ करता मैं तेरी इक-इक वाह में। 

इज़ाफ़ा तो किया इश्क़-ओ-वस्ल ने,  
'विकाश' फंस बुरा गया इस ग़ुनाह में।

विकाश बैनीवाल - भादरा, हनुमानगढ़ (राजस्थान)

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