ये कैसा अपनापन है - कविता - राम प्रसाद आर्य

कौन कहता है कि, बेटी तो पराया धन है? 
पूछो उससे कि तेरा, ये कैसा अपनापन है।।
पूछो उससे कि....

अपनी जनी को ही तू पराया कैसे कहता है? 
क्या उसके तन लहू किसी और का ही बहता है? 
ब्याहते ही उसे, क्यों मन में ये परिवर्तन है? 
पूछो उससे कि तेरा ये कैसा अपनापन है।।
कौन कहा है कि....।।
 
जना तूने ही जिसे, पाला, व खुद पढाया है। 
बचपन से साध रही जैसे कि परछया है। 
यौवन आते  ही कडुवाहट क्यों बस गयी मन है? 
पूछो उससे कि तेरा कैसा ये अपनापन है।। 
कौन कहता है कि....।। 

वो भी बेटी ही तो है, जिसने तुझ बेटे को जना। 
जिसका पय पीके, आज तू पुनः है बाप बना। 
फि क्यों बेटी लगे न तुझको कि अपना धन है? 
पूछो उससे कि तेरा ये कैसा अपनापन है।।
कौन कहता है कि....।।

मरेगा गर, न कोई बेटा साथ आयेगा। 
रोयेगा, रस्म भर जग की महज निभायेगा। 
तो फिर क्यों फर्क बेटा, बेटी में तेरे  मन है? 
पूछो उससे कि तेरा ये कैसा अपनापन है।। 
कौन कहता है कि....।।    

बेटी तो ब्याह कर भी प्यार तुझे करती है। 
वो तेरी आन के लिए ही जीती-मरती है। 
फिर क्यों लगता न तेरे दिल की वो कोई धड़कन है?
पूछो उससे कि तेरा ये कैसा अपनापन है।। 
कौन कहता है कि बेटी तो पराया धन है?
पूछो उससे कि तेरा ये कैसा अपनापन है।।

राम प्रसाद आर्य - जनपद, चम्पावत (उत्तराखण्ड)

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