मिहिर! अथ कथा सुनाओ (भाग ७) - कविता - डॉ. ममता बनर्जी "मंजरी"

हे प्रियवर मार्तंड! किरण पट अपना खोलो।
तत्काल झारखण्ड, राज्य की बातें बोलो।
मुगल वंश का दंश, किन्हें कर गया भिखारी?
कर देना उसकाल, पड़ा था किनको भारी?

होकर तनिक उदास, मिहिर लब अपना खोले।
लेकर गहरी साँस, मींचकर आँखें बोले।
मुगल वंश तत्काल, करों से कर गरमाए।
इधर मराठें जाल, बिछाकर पाँव जमाए।।

हुई प्रांत उत्ताल, भले हालत पतली थी।
ईस्ट इंडिया चाल, जुए की खूब चली थी।
मगर सफलता हाथ, मिली न उनको झटपट।
राजाओं के साथ, लगी होने नित खटपट।।

यूँ थे नहीं अधीन, किसी के भी वनवासी।
जल वन और जमीन, नहीं थी यहाँ सियासी।
करने लगे विरोध, प्रांत के रक्षक सारे।
मार्ग किए अवरोध, कम्पनी को धिक्कारे।।

कहकर इतनी बात, हुए चुपचाप प्रभाकर।
लेकर घोड़े सात, दिए चल हाथ हिलाकर।
कल आना मंदार, वायदा कर के जाओ।
सुनना एक गुहार, मिहिर! अथ कथा सुनाओ।।

डॉ. ममता बनर्जी "मंजरी" - गिरिडीह (झारखण्ड)

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