ख़ामोशी एक सदा - कविता - कर्मवीर सिरोवा

खुशियाँ मोबाईल हो चली,
पीपल तले खामोशियाँ मिली।

बेमतलब की बातें इतनी हुई,
नफ़रतों को इससे हवा मिली।

राजनीति ने अब हुँकार भरी,
दिलों में अब चिंगारियाँ मिली।

उसने ज़माने में मन की कहीं,
बातों में झूठ की बदबू मिली।

मोहब्बत की भूमि हिन्दू बनी,
मन्दिर मस्जिद से तिरगी मिली।

इतिहास की किताबें झूठी रही,
व्हाट्सएप में सच्चाई मिली।

चमन में अब खरपतवार उगी,
मैं भक्त तू चमचा सदाएं मिली।

महफ़िल में दोस्त मिलते नहीं,
साक़ी को अब फटकार मिली।

ट्रम्प को हवन तो यज्ञ कहीं,
मूर्खों की एक भीड़ मिली।

ताली बजाकर कोरोना से हारा,
उससे नसीहतें हजार मिली।

झोपड़ी तेरी अब कोठी बनी,
मुफ़लिस को क्यूँ 'ना' मिली।

सुनों! ठोकरें सारी उधार रही,
क़ामयाबी की एक राह मिली।

'कर्मवीर' में बुराई एक नहीं,
क्यूँ ज़माने से फिर आह मिली।

कर्मवीर सिरोवा - झुंझुनू (राजस्थान)

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