नित कर्मों की बेला से
जीवन को जीना सीखा है,
जो ओढ़ चादर नील गगन की
वो बच्चा सोते देखा है।
कंचन वर्णी किरणों से
पहले जगते जो देखा है,
वो चप्पल की तकिया संग
गिट्टी का बिस्तर देखा है।
नित कर्मों की बेला से
महलों को सोते देखा है,
आज नहीं कल ही वो
महलों को गिरते देखा है।
आज नहीं कल भी मैंने
जीवन को जीते देखा है,
नित कर्मों की बेला से
जीवन को जीना सीखा है।
कवि कुमार प्रिंस रस्तोगी - सहआदतगंज, लखनऊ (उत्तर प्रदेश)