पोथी पुस्तक मोल कर, पढ़े नहीं अब कोय।
कैसे इस संसार का, कहो सुमंगल होय।
लोग करें अब आप को, ई-बुक से सन्तुष्ट।
इस कारण माँ शारदे, हुई जगत से रुष्ट।।
मान लिया अब काल ही, हेतु बन गया एक।
जूझ रहे अज्ञान से, जनमानस अतिरेक।।
किन्तु सत्य से हम नहीं, मुँह सकते हैं मोड़।
पुस्तक से नाता बखुद, लोग दिए अब तोड़।
पुस्तक से होने लगे, लोग आजकल दूर।
पता नहीं क्यों हो गए, हालत से मजबूर।।
सज-धज कर बाजार में, पुस्तक जोहे बाट।
राह भूल कर हम सभी, जाते ई -बुक हाट।।
घर के कोने में रखी, पुस्तक, मन में रोय।
रो-रोकर हमसे कहे, पढ़ो हमें भी, कोय।।
पुस्तक मेले में कहाँ, पुस्तक पावे भाव।
रहा पुस्तकालय नहीं, विद्यार्थी का चाव।।
ऐसे-कैसे होयगा, विश्वपटल उजियार।
इसके खातिर हम करें, पहले इससे प्यार।।
डॉ. ममता बनर्जी "मंजरी" - गिरिडीह (झारखण्ड)