पाश्चात्य परिधान एवं आधुनिक विचार - निबंध - प्रवीन "पथिक"

"तन परिधारणात् परिधानः" आचार्य पाणिनि का यह कथन परिधान की सार्थकता को पूर्णरूपेण परिलक्षित करता है, परंतु वर्तमान काल में यह तथ्य लगभग लेस मात्र ही आलोकित हो रहा है। पाश्चात्य का बिंब ऐसा पड़ा कि नवोन्मेषित युवा पीढ़ी इस प्रकार दलदल में धंसती चली गई कि उसे अपने सांस्कृतिक मानदंड का किंचित मात्र भी भान नहीं रहा। 'सौंदर्य शालीनता में है 'गुणों की पराकाष्ठा सौंदर्य चेतना को जागृत करती है परंतु आज तो तन अवलोकन ही सौंदर्य का बिंब बनकर रह गया है, जो हमारे लिए दुर्भाग्यपूर्ण है।

जहां तक मेरी दृष्टि जा रही है, पाश्चात्य परिधान का भारत में आविर्भाव चलचित्र जगत की देन है। मांसल सौंदर्य की परिकल्पना पाश्चात्य संस्कृति ने दिया , जिसे भारतीय चलचित्र जगत ने स्पष्ट रूप से ग्रहण किया और फिर क्या था? इसके इंद्रजाल में हमारी नवीन पीढ़ी ऐसे सम्मोहित होती चली गई   कि वर्तमान समय में मांसल सौंदर्य ही  सभ्य जनों का प्रतीक बन गया। हाय रे भारत का दुर्भाग्य ! जिस नवीन पीढ़ी का आदर्श स्वामी विवेकानंद जैसे महापुरुष बनने चाहिए थे, आज वह तन को प्रदर्शित करने वाले कुछ अभिनेता और अभिनेत्रियों को अपने आदर्श की स्वीकृति दे रखी है। स्पष्ट है कि मांसल सौंदर्य कामुक होता है, उत्तेजित करता है और नर के अंदर पाशविक प्रवृत्तियों को जन्म देता है, जिससे मनुष्य मनुष्य ना होकर नर पशु बन जाता है। बलात्कार छेड़छाड़ यौन उत्पीड़न आदि पाशविक  प्रवृत्तियों के ही प्रत्यक्ष प्रमाण हैं।

मुझे कुछ पंक्तियां याद आ रही हैं जो पाश्चात्य परिधान को पूर्णरूपेण प्रदर्शित करती है-
पछुआ हवा कुछ यूं चली,
कि दुपट्टे उड़ गए ब्रेस्ट से।
स्कर्ट माइक्रो हो गया,
अध खुला बदन है स्लेक्स से।
प्यार में भी आजकल,
ऐसा खुलापन आ गया।
लव लेटर भेजा है,
एक लड़की  ने मुझको फैक्स से।

आधुनिक विचारधारा क्या पाश्चात्य परिधान को स्वीकृति देती है? यदि हां तो इसका कारण क्या है? क्या केवल शरीर पर वस्त्रों के सिकुड़ते जाने की प्रवृत्ति ही नवीनता लाएगी? यदि ऐसा है तो आचार्य दंडी के कथन का क्या होगा जहां वह कहते हैं-
"प्रज्ञा नवोन्मेषशालिनी  प्रतिभा" क्या मांसल सौंदर्य ही प्रतिभा को जन्म देने वाला है। यह कतिपय सत्य नहीं हो सकता, कारण हमारे यहां तो सौंदर्य में भी नवीनता का बोध होता है। "क्षणे क्षणे नवोभवति सौन्दर्यः। "नवीन पीढ़ी का एक तर्क हो सकता है कि इस नव परिधान में उसे स्वछंदता महसूस होती है। वह निश्चित रूप से स्वच्छंद विचरण करना चाहती है जो एक प्रगतिशील समाज के लिए आवश्यक भी है। यह सत्य भी है; ऐसा होना भी चाहिए। मैं इस तर्क को स्वीकार करता हूं परंतु वास्तविक बोध नहीं कर पाता हूं कि क्या केवल वस्त्रों के कुछ कतिपय बंधनों को तोड़कर निकलना  ही स्वच्छंदता है?कदापि नहीं ! क्योंकि स्वच्छंदता तो विचारों में होती है, मैं जहां तक समझता हूं परिधान का संबंध प्रादेशिक परिवेश से है ब्रिटेन में ठंड अधिक रहती है; अतः टाई बांधना वहां की परंपरा है। अरब गर्मी पड़ती है; अतः बुर्का पहनना वहां की परंपरा है, ताकि बदन झुलस न जाए। जहां उष्ण प्रदेश है जैसे वेस्टइंडीज, पुर्तगाल, ब्राजील आदि समुद्र तटीय प्रदेश वहां गर्मी के कारण कम वस्त्र जैसे बिकनी  आदि पहने जाते हैं। परंतु इन प्रदेशों की  विवशता को हम अभिलाषा के रूप में स्वीकार करें, यह कहां तक न्याय संगत है!

इस विलक्षण अन्वेषण के फलस्वरूप हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि पाश्चात्य परिधान वास्तव में पाश्चात्य देशों के लिए श्रेयस्कर है; क्योंकि उनकी विचारधारा इसके अनुरूप है परंतु भारतीय जनमानस अपनी विचारधारा में इन पश्चात परिधानों का कभी महत्व नहीं दे सकती। हमारी सांस्कृतिक विरासत कभी इसे स्वीकार नहीं करेगी। हम यौवन  के संरक्षक हैं; यौवन विषपायी नहीं। हमारी भावना नर बनने की है नर पशु नहीं।

अतः पाश्चात्य परिधान और आधुनिक विचार एक दूसरे के भले ही पूरक हो परंतु भारतीय सभ्यता और संस्कृति के अनुकूल नहीं।
इस मांसल तन का विष छोड़ो,
यह बोध कराने आया हूं।
हे भारत के युवा जगो,
मैं तुम्हें जगाने आया हूं।

प्रवीन "पथिक" - बलिया (उत्तर प्रदेश)

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