दीक्षा अवस्थी - औरैया (उत्तर प्रदेश)
आधुनिकता और संस्कार - लेख - दीक्षा अवस्थी
शनिवार, अक्तूबर 03, 2020
आज के इस आधुनिकतम युग में हमें संस्कृति, सभ्यता व संस्कारों को दरकिनार नहीं करना चाहिए। नैतिकता, शिष्टाचार हमारे जीवन में महत्वपूर्ण भूमिका रखते हैं नैतिक मूल्यों से भरा व्यक्ति शिष्टाचार का महत्व समझता है। मनुष्य अपने संस्कार व नैतिक मूल्यों से भूलता जा रहा है। पुराने समय में हम देखेंगे की नैतिक मूल्यों व शिष्टाचार के लिए कोई विशेष विषय प्रबंध नहीं था। यह सब तो बच्चे अपने पारिवारिक माहौल में ही सीखता था।
आज से दो दशक पहले तक टीवी, मोबाइल का चलन ज्यादा नहीं था तो हम सब बच्चों का समय ज्यादातर रात दादी बाबा या नानी नाना से कहानियां सुनने में व्यतीत होता था। वह कहानियां बच्चों के लिए न सिर्फ मनोरंजन का विषय थी बल्कि यह बच्चों में शिष्टाचार व नैतिक संस्कारों का बीजारोपण भी करती थी। बचपन में सुनी गई उन कहानियों से हमको विभिन्न तरह की अच्छाइयों व बुराइयो का अनोखा ज्ञान प्राप्त होता था। और साथ ही साथ एक संस्कारी व्यक्तित्व अपनाने की प्रेरणा भी मिलती थी। बच्चों के संस्कार की जिम्मेदारी उनके अभिभावकों का प्रथम कर्तव्य है। अभिभावकों द्वारा अपने बच्चों में संस्कारों की नीव ना डालने से, ना सिर्फ बच्चों का भविष्य गलत दिशा में आगे बढ़ सकता है, बल्कि वे आगे चलकर परिवार व समाज के लिए भी कष्टकारी होते हैं।
विद्यालयों में भी शिक्षकों को चाहिए कि नैतिक शिक्षा बच्चों के लिए सिर्फ विषय बन कर ना रह जाए ज्यादातर बच्चों को नैतिक शिक्षा विषय एक मनोरंजन तक सीमित है। शिक्षकों व अभिभावकों को संयुक्त रूप से बच्चों को किताबी ज्ञान के साथ-साथ, उनके अंदर नैतिक मूल्यों के प्रति जागरूकता करने का भी प्रयास करना चाहिए ताकि बच्चे नैतिक शिक्षा को रटे ना बल्कि संस्कारों के रूप में जीवन में पालन भी करें। हम बच्चों और युवाओं के संस्कार विहीन होने की जिम्मेदारी उन पर नहीं डाल सकते उनके अंदर नैतिकता व शिष्टाचार का बीज हमें उनके बाल्यावस्था में ही डालना पड़ेगा।
आज इंटरनेट, मोबाइल की पीढ़ी का युग है। बच्चों को हम आज पुरानी विचारधारा से बांधकर नहीं रख सकते। हमें खुद भी रूढ़िवादिता को छोड़ना होगा लेकिन शिष्टाचार व नैतिकता के संस्कारों के बिना हम एक खुशहाल समाज का निर्माण नहीं कर सकते हैं। हमारे संस्कार हमारे पूर्वजों की पहचान है। संस्कारों के नाम पर प्राचीन रूढ़ीवादी विचारों को आधुनिक समय में लागू कर सकते लेकिन नैतिक मूल्यो व शिष्टाचार के संस्कारों को भी नहीं भुला सकते। आधुनिकतम युग में हमें विचारों से आधुनिक बनने की आवश्यकता है संस्कारों से नहीं। अगर हम अपने संस्कार, संस्कृति व सभ्यता को भुला देंगे तो बच्चे अंग्रेजी नववर्ष तो मनाते रहेंगे लेकिन हिंदी नववर्ष की ओर कभी भी ध्यान नहीं जाएगा और ना ही वे कभी इनमें फर्क समझ पाएंगे, अगर आधुनिक में इनका बीजारोपण बच्चों में ना किया गया तो देश की प्रगति, संस्कृति व सभ्यता का विनाश तय है।
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