वृद्ध - कविता - रंजन साव

मैं उड़ता हूँ
उड़ता ही जाता हूँ
रूकता हूँ तो
थक कर चूर हो जाता हूँ।

शायद पेशानी की 
लकीरें उभर आई है।
अब सालों बीत जाने पर
उम्र ढल आई है।

नजरें भले ही
हो गई है कम मेरी।
मगर मस्तिष्क में
समूचा जीवन समाहित हो गया है।

अब नन्हे चिड़ैया 
बड़े होकर पंक्षी बन गए हैं।
सभी इस घोंसले को छोड़
नई जगह को उड़ गए हैं।

आस-पास की हवाओं ने भी
अब करवट बदल ली है।
अपने ही नीड़ में
कई टहनियां टूट गई है।

अब शक्ति नहीं बची मुझमें 
की उड़ पाऊं अधिक दूर।
बस रूकता हूँ तो
थक कर हो जाता हूँ चूर।

रंजन साव - जगाछा, हावड़ा (पश्चिम बंगाल)

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