संघर्ष - कविता - कर्मवीर सिरोवा

पिता के खुरदरे पैर 
जैसे ही दहलीज पर घर्षण करते थे,
घर में वो निढ़ाल जिस्म 
एक ऊर्जा ले आता था।
तिरपाल जैसी चुभती शर्ट
ऐसे भीगी होती थी जैसे 
झाड़ पर ठहरी हो कोई शबनम।
पसीनें की लहलहाती महक,
चूल्हें की बुझती लौ में घी झोंक देती थी।
पसीनें की बूँदों से,
मेरे छोटे से जिस्म की जड़े पल रही थी।
चारपाई की टूटती जड़ें 
जमीन को छूकर जताती कि 
इस संघर्ष ने थका दिया हैं पिता को,
पर रुकना कहाँ था संघर्ष अविराम था।
ये संघर्ष था कि चूल्हा सुलगता रहें,
मेरी भारी भरकम किताबें आती रहें।
फूल स्पीड में चलते पंखे ने 
जैसे जानबूझकर 
अखबार का पेज पलटा,
तो अखबार पिता का संघर्ष दिखा रहा था,
छपा था कि गर्मी ने इस बार भी
सारे रिकॉर्ड तोड़ दिये।
वो संघर्ष ही था कि पिता ने
महीनें के पूरे तीसों दिन,
तपती धूप को दे दिए,
पिता ने सूरज का घमंड तोड़कर,
खुद को जला दिया,
पर मुझें ऑफिस में बैठा दिया।
ये संघर्ष इतना नम था, 
कि आज जब सोचता हूँ 
इस संघर्ष के बारे में,
आँखों से टपक जाता है पसीना।।

कर्मवीर सिरोवा - झुंझुनू (राजस्थान)

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