मैं अबला नहीं - कविता - सुधीर श्रीवास्तव

अब वह समय नहीं रहा 
अब मैं अबला नहीं सबला हो गई हूँ।
वो समय गुजर गया 
जब मैं छुईमुई सी
हर बात में घबरा जाती थी,
डर जाती थी,
आज मेरे हौसलों को उड़ान मिल रही है
हर क्षेत्र में हमारी पहचान बन रही है।
शिक्षा, कला, साहित्य हो 
सेना, विज्ञान,कला या संस्कृति हो,
घर की दहलीज हो 
या वतन की सुरक्षा हो।
हमने हर जगह 
अपनी पहुंच बना ली है,
अपने साथ-साथ हमने 
परिवार को भी संभालना सीख लिया है।
बेटी होकर भी बेटे का 
हर फर्ज निभाना जान लिया है।
अब हम किसी से नहीं डरते,
घर से बाहर तक
संघर्ष  करने, लड़ने और 
जीतने की जिद करना सीख लिया है।
अपनी इज्ज़त पर 
हमला करने वालों को
सबक सिखाने का हौसला कर लिया है।
अपने माँ बाप के 
अंतिम संस्कार का डर भी
मन से निकाल दिया है,
बेटी होकर भी बेटों का 
कर्तव्य निभाने का निश्चय कर लिया है।
अब हमें अबला समझने की 
भूल मत करना,
ईंट का जवाब पत्थर से देना
हमने सीख लिया है।
खुद को मजबूत हमनें कर लिया है।

सुधीर श्रीवास्तव - बड़गाँव, गोण्डा (उत्तर प्रदेश)

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