हे पिता! - कविता - शुभ्रा मिश्रा

हे पिता! तुम्हारी अंगुली पकड़ कर
अभी अभी तो चलना सीखा है मैंने।
संभलना सीख ही नहीं पाई
ना ही दौड़ना सीख पाई मैं।
अभी आगे कितनी दूर है मंजिल
किसे है पता?
आओ! और सीखा दो मुझे
जीवन के सारे गणित।
मैंने तो तुम्हारी ऊंगली के सिवा
कुछ गिना ही नहीं!

शुभ्रा मिश्रा - सिंगरौली (मध्यप्रदेश)

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