धूप - कविता - मयंक कर्दम

सोने जैसा रंग है मेरा,
अनेक रंग में दिखलाती हूँ।
सुबह शाम दौड़ती रहती,
आज तुमको मैं बतलाती हूँ।। 

पंछी भी झूम उठते, 
जब मैं खिल-खिलाती हूँ।
फूल नहीं मैं धूप हूँ,
आज तुमको मैं बतलाती हूँ।। 

गर्मी में दुश्मन बनती,
सर्दी में प्रेमिका बन जाती हूँ।
दुख-सुख का अनुभव करवाती,
आज तुमको मैं बतलाती हूँ।। 

सूरज संग मैं जल्दी उठती, 
अंधेरा दूर भगाती हूँ।
लोगों से पहले में सोती,
आज तुमको मैं बतलाती हूँ।। 

सागर की लहरों से तेज मैं चलती, 
बादलों की करकट से रंग में बदलती हूँ।
सुन उसकी आवाज पल-पल डरती,
आज तुमको मैं बतलाती हूँ।। 

बादल भी रोते मुझ पर ,
उसको भी मैं मनाती हूँ।
मुझसे ही वह वर्षा होती,
आज तुमकों मैं बतलाती हूँ।। 

हवा से मैं बातें करती,
फूलों को महकाती हूँ।
अपनी रंग की चादर ढकती,
आज तुमको मैं बतलाती हूँ।। 

प्रभात हो उठकर मैं चलती, 
दूर-दूर अपना प्रताप चलाती हूँ।
काले कृष्ण को बड़ा सताती, 
आज तुमको मैं बतलाती हूँ।।

जग से सुंदर काम है मेरा,
सब जगह उजियारा करवाती हूँ।
बच्चों की छाया से खेल खिलाती,
आज तुमको मैं बतलाती हूँ।।

जब करती आराम मैं, 
निशा को बुलवाती हूँ।
मयंक से मैं छुप जाती,
आज तुमको मैं बतलाती हूँ।। 

मयंक कर्दम - मेरठ (उत्तर प्रदेश)

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