अपना घर जलाते है - कविता - सन्तोष ताकर "खाखी"

एक हादसा और उठाते हैं, 
चलो अब तुम्हें भूल ही जाते हैं।
लोग मंजिल तक क्यों नहीं पहुंचते, 
शायद रास्ते से लौट आते है। 
उनको प्यार तक नही नशीब होता,
जो यार पे अपना खून तक बहा देते है।
सियासत का खेल खेलने दो उनको,
चलो हम अपना राबता निभाते हैं।
जो अपना एक घर ना बसा सके,
वो हमें तामीर के किस्से सुनाते हैं।
चराग जलाने‌ से उजाला ना हो सका, 
चलो अब अपना घर जलाते हैं।।

सन्तोष ताकर "खाखी" - जयपुर (राजस्थान)

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