नई भोर नव आश मन, नव अरुणिम आकाश।
मिटे मनुज मन द्वेष तम, मधुरिम प्रीति प्रकाश।।१।।
मार काट व्यभिचार चहुँ, जाति धर्म का खेल।
फँसी सियासी दाँव में, हुई मीडिया फ़ेल।।२।।
अनुशासन की नित कमी, लोभ घृणा उत्थान।
प्रतीकार में जल रहा, शैतानी हैवान।।३।।
मिटी आज सम्वेदना, दया धर्म आचार।
कहाँ त्याग परमार्थ जग, पाएँ करुणाधार।।४।।
सत्ता के मद मोह में, अनाचार सरकार।
मार रही है साधु को, पाती जन धिक्कार।।५।।
बँटी हुई है मीडिया, लोकतंत्र आवाज़।
बेच आज निजअस्मिता, फँस लालच बिन लाज।।६।।
कौन दिखाए सत्य को, जगाए जनता कौन।
जाति धर्म फँस मीडिया, चौथ आँख जब मौन।।७।।
अद्भुत भारत अवदशा, अद्भुत जनता देश।
तुली तोड़ने देश कोज़ कोप लोभ खल वेश।।८।।
नश्वर तन है जानता, नश्वर भौतिक साज।
फिर भी पापी जग मनुज, चाहत धन सरताज।।९।।
स्वार्थ पूर्ति में देश को, तोड़ रहा इन्सान।
रिश्ते नाते सब भुले, देश धर्म सम्मान।।१०।।
आहत है माँ भारती, लज्ज़ित है निज जात।
पा कुपूत चिर हरण निज, अश्रु नैन पछतात।।११।।
लज्जित हैं पूर्वज वतन, देख वतन गद्दार।
पछताती कुर्बानियाँ, भारतार्थ उद्धार।।१२।।
कामुक लोभी कपट जन, देश द्रोह नासूर।
विध्वंसक ये देश के, दुष्कर्मी नित क्रूर।।१३।।
आवश्यक जन जागरण, दर्शन नव पुरुषार्थ।
नैतिक शिक्षा हो पुनः, भरें भाव परमार्थ।।१४।।
त्याग शील मानव हृदय, दें बचपन उपदेश।
धर्म कर्म सद्ज्ञान दें, भारतीय परिवेश।।१५।।
उपकारी अन्तःकरण, राष्ट्र भक्ति मन प्रीति।
राष्ट्र प्रगति हो निज प्रगति, हो शिक्षा नवनीति।।१६।।
समरसता सद्भाव मन, बचपन में दें पाठ।
मानवीय अनमोल गुण, संस्कार दें गाँठ।।१७।।
बचपन जब नैतिक सबल, तरुण बने मजबूत।
तब भारत सुख शान्ति होज़ युवा देश हों दूत।।१८।।
इन्द्रधनुष सतरंग बन, खिले प्रगति अरुणाभ।
खुशियाँ महकेँ कुसुम बन, सुखद शान्ति नीलाभ।।१९।।
कवि निकुंज दोहावली, माँग ईश वरदान।
मति विवेक परहित सदय, बने मनुज इन्सान।।२०।।
डॉ. राम कुमार झा "निकुंज" - नई दिल्ली