स्त्री - कविता - प्रमोद कुमार "बन्टू"

रिस्ते नाते जितने होते,
सबका मान वो रखती है।
अंगारों पर खुद वो चलती,
अपनी पहचान वो रखती हैं।

नन्हें - नन्हें पाँव से चलती,
नन्ही सी हर ख्वाहिश है।
इस नन्हें से जीवन से,
सुंदर अभिलाषा रखती है।

मन मे उसके भेद नही  है,
सबका मन वो रखती है।
दीपक जैसी खुद जलती है,
सबको उजियाला देती है।

घर के सारे बोझ उठाती,
कभी नही वो थकती है।
खुद रह लेगी भूखी प्यासी,
कुल में उजाला रखती है।

करुणा का भंडार है तुझमें,
दया का सागर तुझमे है।
तू जननी है तू कुलकर्णी,
हर पहचान तू रखती है।

'प्रेम' शब्द तुझसे ही निकला,
तू माता, बहना, भगनी है।
गुड़िया बन आँगन चहकाती,
माता का आँचल रखती है।

तेरी हर महिमा न्यारी,
तू जग की सरदारी है।
हे! स्त्री तू नायक है,
विधाता है, तू धरती है।

प्रमोद कुमार "बन्टू" - फर्रुखाबाद (उत्तर प्रदेश)

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